देशी रियासतों के प्रति ब्रिटिश नीति Notes

इस Notes का अध्ययन करने के उपरांत ‘ देशी रियासतों के प्रति ब्रिटिश नीति तथा उससे सम्बंधित विभिन्न पहलुओं’ पर आपकी समझ विकसित होगी। जैसे – घेरे की नीति,अधीनस्थ पार्थक्य की नीति,अधीनस्थ संघ की नीति,समान संघ की नीति,नरेंद्र मंडलः एवं बटलर समिति के प्रमुख प्रावधानः ।

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भूमिका (Introduction)

भारत में 562 रियासतों के अधीन लगभग 7,12,508 वर्गमील का क्षेत्र था। 1740 ई. से पूर्व ब्रिटिश कम्पनी राजनीतिक आकांक्षाओं से रहित एक व्यापारिक कम्पनी थी। 1751 ई. में क्लाइव द्वारा अर्काट पर घेरा डालना कम्पनी द्वारा भारत में राजनीतिक प्रभुत्व स्थापित करने का प्रथम प्रयास था।

  • प्लासी के युद्ध के पश्चात् एक शताब्दी से भी कम समय में भारत की देशी रियासतों पर ब्रिटिश कम्पनी का प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से अधिकार हो गया था। देशी रियासतों को ब्रिटिश शासन के अधीन करने के संदर्भ में कोई निश्चित नीति नहीं थी।
  • ध्यातव्य है कि इन्हीं ब्रिटिश नीतियों में समय व परिस्थिति के अनुसार परिवर्तन होता रहा, जिसे विलियम ली वार्नर ने अपनी पुस्तक ‘द नेटिव स्टेट्स ऑफ इंडिया’ (The Native States of India) में देशी रियासतों के प्रति ब्रिटिश नीति को तीन चरणों में विभक्त किया है तथा कुछ विद्वानों ने देशी रियासतों के प्रति चौथी ब्रिटिश नीति को भी बताया है, जो निम्नलिखित है-
  1. घेरे की नीति (1765-1813 ई.)
  2. अधीनस्थ पार्थक्य की नीति (1813-1858 ई.)
  3. अधीनस्थ संघ की नीति (1858-1935 ई.)
  4. समान संघ की नीति (1935-1947 ई.)

घेरे की नीति (The Policy of Ring Fence), 1765-1813 ई.

  • भारत में ब्रिटिश शासन के आरंभिक दौर में अंग्रेजों की राजनीतिक महत्त्वकांक्षाओं के होते हुए भी देशी रियासतों के प्रति अहस्तक्षेप की नीति अपनाई गई थी क्योंकि भारत में ब्रिटिश शासन की शुरुआत के समय अंग्रेज़ों का उद्देश्य नवविजित राज्यों को सुरक्षित ब्रिटिश शासन में बनाए रखना था। उदाहरणतः बंगाल को सुरक्षित रखने हेतु अवध के साथ संधि की गई ताकि बफर राज्य के माध्यम से मराठा आक्रमण से बंगाल को सुरक्षित किया जा सके। इस प्रकार घेरे या अहस्तक्षेप की नीति के माध्यम से जीते गए प्रदेशों के पास बफर राज्य की स्थापना की जाती थी।
  • घेरे की नीति एक लचीली व्यवस्था थी जो समय और परिस्थितियों के अनुसार परिवर्तित भी होती रही। वारेन हेस्टिंग्स के काल में अवध के मामले में हस्तक्षेप, रूहेला युद्ध, मराठा युद्ध तथा द्वितीय आंग्ल-मैसूर युद्ध आदि ने अहस्तक्षेप के सिद्धांत से विचलन को प्रदर्शित किया।
  • इसी प्रकार लॉर्ड कार्नवालिस ने टीपू सुल्तान के विरुद्ध तृतीय आंग्ल-मैसूर युद्ध लड़कर अहस्तक्षेप की नीति को त्याग दिया। इसके पश्चात् वेलेजली ने भी मराठों के मामले में हस्तक्षेप करके अहस्तक्षेप की नीति का उल्लंघन किया।
  • वहीं दूसरी तरफ वेलेजली ने सहायक संधि के रूप में साम्राज्यवादी नीति का पालन किया जो घेरे की नीति का ही विस्तार था। इस नीति के माध्यम से भी देशी रियासतों के साथ संधि करके उन्हें बफर राज्य में बदलने की रणनीति पर काम किया गया।

अधीनस्थ पार्थक्य की नीति (The Policy of Subordinate Isolation), 1813-1858 ई.

  • सहायक संधि ने देशी रियासतों की दुर्बलताओं को प्रकट करके राज्यों के आंतरिक मामलों में ब्रिटिश हस्तक्षेप को बढ़ाने का कार्य किया। इसी दौरान ब्रिटिश औद्योगिक नीति के अंतर्गत अपनाई गई मुक्त व्यापार की नीति ने भी देशी रियासतों पर प्रत्यक्ष नियंत्रण की आवश्यकता को प्रस्तुत किया। फलतः हेस्टिंग्स ने प्रत्यक्ष विस्तार की नीति को अपनाते हुए युद्ध की रणनीति पर कार्य किया।
  • इस हेतु हेस्टिंग्स ने देशी रियासतों के मध्य आपसी टकरावों को अधिक मुखर किया ताकि ये रियासतें अंग्रेज़ों के विरुद्ध एकजुट ना हो सकें। इस प्रकार अधीनस्थ पृथक्करण की नीति में देशी रियासतों को अधीन कर अन्य रियासतों से उनके सम्बंधों में अलगाव कर देने का तत्त्व प्रमुख था। इसी नीति का पालन करते हुए अंग्रेजों ने तृतीय आंग्ल-मराठा युद्ध सम्पन्न किया, जिसमें मराठों से अलग-अलग संधियाँ की गई।
  • अब जो संधियाँ रियासतों से की जाती थीं, इनमें पारस्परिकता एवं मित्रता के स्थान पर कम्पनी के साथ अधीनस्थ सहयोग और कम्पनी की सर्वश्रेष्ठता को स्वीकारने की बात थी। अब रियासतों की संपूर्ण बाहरी प्रभुसत्ता कम्पनी के अधीन हो गई थी, यद्यपि आंतरिक मामलों में वे पूर्णतः स्वतंत्र थे।
  • इस नीति के तहत भारतीय शासकों के दरबार में कम्पनी सरकार के प्रतिनिधी के रूप में रेजीडेंट रहते थे। रेजीडेंट शासन प्रणाली में हस्तक्षेप करते थे और कई बार अप्रत्यक्ष नियंत्रण भी स्थापित करते थे।

अधीनस्थ संघ की नीति (The Policy of Subordinate Union), 1858-1935 ई.

  • 1857 ई. की क्रांति के पश्चात् अंग्रेजों ने देशी रियासतों के विलय और अलगाव की नीति को त्यागकर ऐसी नीति का अनुसरण करना आवश्यक समझा जो स्थानीय शासकों से सहयोग प्राप्ति पर आधारित हो। फलतः ऐसी नीति अपनाई गई, जिसमें भारतीय रियासतों को अलग रखने के स्थान पर भारतीय प्रशासन में श्रेष्ठ स्थान दिया गया। इस हेतु अधीनस्थ पृथक्करण की नीति को त्यागकर अधीनस्थ संघ या एकीकरण की नीति को अपनाया गया।
  • 1858 ई. में महारानी विक्टोरिया द्वारा की गई नई घोषणा में भारतीय साम्राज्य ब्रिटिश संसद के प्रत्यक्ष नियंत्रण में ले लिया गया तथा देशी रियासतों के विलय और व्यपगत की नीति को त्याग दिया गया।
  • इस नई नीति के तहत यह निश्चित किया गया था कि देशी राजाओं को कुशासन के लिये दंडित किया जाए और आवश्यक हो तो गद्दी से उतार दिया जाए परंतु राज्य का विलय न किया जाये। जैसे कि 1874 ई. में गायकवाड को कुशासन के लिये गद्दी से तो उतार दिया गया किंतु राज्य का विलय ब्रिटिश साम्राज्य में नहीं किया गया।
  • 1876 ई. में वायसराय लिटन ने देशी राज्यों पर ब्रिटिश सर्वोच्चता को कानूनी रूप दे दिया तथा महारानी विक्टोरिया को भारत की साम्राज्ञी घोषित किया गया। इस प्रकार भारतीय रियासतें अंग्रेजों के अधीन हो गई।
  • इस नीति के तहत ही अंग्रेज़ों ने देशी रियासतों के साथ सौहार्द्रपूर्ण सम्बंध बनाने के लिये 1921 ई. में नरेन्द्र मंडल की स्थापना की गई तथा 1927 ई. में भारत सरकार और देशी रियासतों के मध्य सम्बंधों के निर्धारण हेतु बटलर समिति की स्थापना भी की गई।

नरेंद्र मंडलः

  • वायसराय के साथ सामूहिक हितों के मामलों पर विचार-विमर्श हेतु 1876 ई. में लार्ड लिटन द्वारा भारतीय राजाओं की एक अंतः परिषद के गठन का सुझाव दिया गया। किंतु इसे इंग्लैंड में स्वीकार नहीं किया गया।
  • आगे चलकर मॉन्टेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधारों के आधार पर 1921 ई. में नरेंद्र मंडल की स्थापना की गई।
  • नरेंद्र मंडल में प्रतिनिधित्व हेतु रियासतों को निम्नलिखित तीन श्रेणियों में विभाजित किया गया-
  1. पूर्व वैधानिक क्षेत्राधिकार रखने वाली 109 रियासतों को सीधा प्रतिनिधित्य दिया गया।
  2. सीमित वैधानिक क्षेत्राधिकार रखने वाली 127 रियासतों द्वारा चुने हुए 12 प्रतिनिधियों को प्रतिनिधित्व दिया गया।
  3. शेष 326 रियासतों को जागीरों अथवा सामंतशाही जागीरों की श्रेणी में रखा गया।

बटलर समिति के प्रमुख प्रावधानः

  • सर्वश्रेष्ठता सर्वोच्च रहनी चाहिए, इसे बदलती हुई परिस्थितियों के अनुसार अपने उत्तरदायित्य का निर्वहन करना चाहिए।
  • राजनीतिक अधिकारियों की भर्ती एवं शिक्षा का अलग से प्रबंध हो।
  • ब्रिटिश भारत और देशी रियासतों के बीच आर्थिक सम्बंधों की जाँच हेतु एक समिति की नियुक्ति हो।

समान संघ की नीति (Policy of Equal Federation), 1935-1947 ई.

  • परिपक्व होते भारतीय राष्ट्रवाद में राष्ट्रवादी भावनाओं को नियंत्रित करने हेतु संवैधानिक सुधारों को लक्ष्य बनाया गया। इसी संदर्भ में 1935 ई. में भारत शासन अधिनियम को पारित किया गया। इसके पश्चात् संवैधानिक सुधारों को बढ़ाने के क्रम में क्रिप्स मिशन, वेवेल योजना तथा केबिनेट मिशन भी लाए गए।
  • अंततः एटली की घोषणा और माउंटबेटन योजना ने ब्रिटिश सर्वोच्चता को समाप्त कर दिया तथा देशी रियासतें भारत या पाकिस्तान किसी में भी जाने के लिये स्वतंत्र कर दी गई। 1947 ई. में पारित भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम ने भारत और पाकिस्तान दो नए राज्यों को निर्मित किया तथा भारत के देशी रियासतों के शासकों को दोनों राज्यों में से किसी में भी शामिल होने के लिये स्वतंत्र छोड़ दिया गया।

मूल्यांकन (Assessment)

  • भारत में ब्रिटिश सर्वोच्चता की स्थापना हेतु ब्रिटिश साम्राज्यवादी नीति कई चरणों में सम्पन्न हुई। अंग्रेजों द्वारा साम्राज्यवादी नीति में परिवर्तन ब्रिटिश हितों और परिस्थितियों को ध्यान में रख कर किया गया।
  • इसके साथ ही आवश्यकता पड़ने पर साम्राज्यवादी नीतियों का उल्लंघन भी किया गया। उदाहरणतः वारेन हेस्टिंग्स द्वारा अहस्तक्षेप की नीति को त्याग कर हस्तक्षेप की नीति को अपनाया जाना।

निष्कर्षतः ब्रिटिश सर्वोच्चता की स्थापना ही अंग्रेजों का मुख्य उद्देश्य था, जिसे येन-केन-प्रकारेण प्राप्त करना चाहते थे ताकि ब्रिटिश आर्थिक एवं राजनीतिक हितों का संवर्धन किया जा सके।

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