ब्रिटिशकालीन न्यायिक व्यवस्था का विकास GK Notes

इस GK Notes का अध्ययन करने के उपरांत ‘ ब्रिटिशकालीन न्यायिक व्यवस्था का विकास तथा उससे सम्बंधित विभिन्न पहलुओं’ पर आपकी समझ विकसित होगी। जैसे – वारेन हेस्टिंग्स के अधीन सुधार, कार्नवालिस के अधीन न्यायिक सुधार, विलियम बैंटिक के अधीन न्यायिक सुधार एवं क्राउन के अधीन न्यायिक विकास GK।

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ब्रिटिशकालीन न्यायिक व्यवस्था का विकास

  • ब्रिटिश राज की स्थापना से पूर्व भारत की न्याय प्रणाली अस्पष्ट तथा भिन्न मतों एवं रीति-रिवाजों पर आधारित थी।
  • प्रशासनिक तथा न्यायिक कार्यों में स्पष्टता का अभाव होने के साथ-साथ विधि के समक्ष समानता व विधि के शासन का सर्वथा अभाव था।
  • यद्यपि अंग्रेज़ों का उद्देश्य भारत में न्याय प्रणाली की एक सुव्यवस्थित संरचना स्थापित करना नहीं था, बल्कि वे भारत में औपनिवेशिक शासन को स्थाई बनाए रखना चाहते थे, इसीलिये अन्य संस्थाओं के साथ न्याय प्रणाली में भी सुधार करना पड़ा।

वारेन हेस्टिंग्स के अधीन सुधार (Reform under Warren Hastings)

  • न्यायिक व्यवस्था में सुधार की दिशा में आरम्भिक प्रयास गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्स द्वारा किया गया। इस संदर्भ में हेस्टिंग्स इस बात को भलीभांति जानता था कि पश्चिम की न्याय-व्यवस्था को बंगाल में एकाएक लागू करना सम्भव नहीं है। अतएव उसने पहले से चली आ रही मुगलकालीन न्यायिक व्यवस्था को ही नए सिरे से गठित करने का प्रयास किया।
  • इस क्रम में, ₹10 से कम के दीवानी मामले गाँव के मुखिया द्वारा सुने जा सकते थे और ₹500 तक के मामलों का निर्णय कलेक्टर की अध्यक्षता वाली जिला दीवानी अदालत कर सकती थी। इसके निर्णयों के विरुद्ध अपील के लिये कलकत्ता में सदर दीवानी अदालत की स्थापना की गई, जिसका अध्यक्ष बंगाल का गवर्नर होता था।
  • फौजदारी मामलों की सुनवाई के लिये वारेन हेस्टिंग्स ने प्रत्येक जिले में फौजदारी अदालत की स्थापना की, जिसका अध्यक्ष काजी होता था तथा वह दो मुफ्तियों की सहायता से न्याय करता था। जिला न्यायालय के निर्णयों के विरुद्ध अपील मुर्शिदाबाद स्थित सदर न्यायालय में की जा सकती थी। इस अदालत का अध्यक्ष नायब नाजिम होता था।
  • अदालती कार्यवाही के लिखित रिकॉर्ड रखने की परम्परा की शुरुआत वारेन हेस्टिंग्स के शासनकाल से ही हुई। न्याय करने हेतु हेस्टिंग्स ने हिंदू एवं मुसलमानों में प्रचलित कानूनों को बांग्ला एवं फारसी भाषा में संहिताबद्ध (Codify) करवाया।
  • दीवानी मामलों की सुनवाई हिंदू व मुस्लिम विधियों के अनुसार होती थी, जबकि फौजदारी मामलों की सुनवाई केवल मुस्लिम कानूनों के आधार पर होती थी।
  • रेग्युलेटिंग एक्ट, 1773 ई. द्वारा कलकत्ता में सुप्रीम कोर्ट की स्थापना हुई। इससे बंगाल में न्याय की दोहरी व्यवस्था लागू हुई, परिणामस्वरूप सुप्रीम कोर्ट और सदर अदालतों के बीच क्षेत्राधिकार को लेकर टकराव होने लगा।

कार्नवालिस के अधीन न्यायिक सुधार (Judical Reforms Under Cornwallis)

  • लार्ड कार्नवालिस ने वारेन हेस्टिंग्स द्वारा स्थापित न्यायिक संरचना को अधिक व्यवस्थित करके भारत में एक सुदृढ़ न्याय प्रणाली की नींव डाली।
  • न्यायालय एवं प्रशासन का पृथक्करण करने की दिशा में ठोस प्रयास करते हुए कार्नवालिस ने न्यायपालिका को ‘पद सोपानिक क्रम’ में व्यवस्थित करके सम्पूर्ण ब्रिटिश शासित प्रदेशों में एकरूपता स्थापित की।
  • अपने कार्यकाल (1786-93 ई.) में कार्नवालिस ने प्रत्येक जिले के मुख्य कस्बे में रजिस्ट्रार, अमीन व मुंसिफ की अदालतों का गठन किया। इनके ऊपर जिला मजिस्ट्रेट की अध्यक्षता वाली जिला अदालत थी, जिसके निर्णयों के विरुद्ध अपील के लिये प्रांतीय अदालतें स्थापित की गई थीं। प्रांतीय अदालतों के ऊपर गवर्नर जनरल की अध्यक्षता में सदर दीवानी अदालत थी, जिसके निर्णयों के विरुद्ध अपील लंदन स्थित प्रिवी काउंसिल (Privy Council) में की जा सकती थी।
  • दीवानी न्याय प्रणाली का पदसोपानिक क्रम (Hierarchy of Civil Justice System) :

    प्रिवी कौंसिल

    सदर दीवानी

    प्रांतीय अदालत

    जिला अदालत

    रजिस्ट्रार

    अमीन व मुसिफ अदालत
  • कार्नवालिस ने फौजदारी न्यायालयों का भी पुनर्गठन किया। उसने जिला फौजदारी न्यायालय को समाप्त करके इसके स्थान पर चार भ्रमणशील न्यायालयों (Circuit Court) की स्थापना की। ये कोर्ट कलकत्ता, ढाका, मुर्शिदाबाद एवं पटना में स्थापित किये गए।
  • इन भ्रमणकारी न्यायालयों के न्यायाधीश यूरोपीय होते थे। यद्यपि इन न्यायालयों के लिये आवश्यक था कि वह वर्ष में दो बार आंतरिक प्रदेशों का दौरा करके न्याय सम्बंधी कार्य करें।
  • जिला कलेक्टरों से न्यायिक तथा फौजदारी शक्तियाँ ले ली गई, क्योंकि कलेक्टरों के बढ़े हुए कार्यों एवं शक्ति से कार्नवालिस चिंतित था, अतएव उसने कलेक्टरों के न्यायिक अधिकार जिला न्यायाधीशों को सौंप दिये।
  • कार्नवालिस ने न्यायिक संरचना के विकास के साथ कानूनों को भी संहिताबद्ध करने का कार्य किया। उसके द्वारा 1793 ई. में तैयार कराए गए कानूनों को ‘कार्नवालिस संहिता’ कहा जाता है। यह संहिता ‘शक्ति के पृथक्करण’ सिद्धांत पर आधारित थी।

विलियम बैंटिक के अधीन न्यायिक सुधार (Judicial Reform under William Bentick)

  • विलियम बैंटिक ने कार्नवालिस द्वारा किये गए न्यायायिक सुधारों में परिवर्तन करते हुए कलेक्टरों को पुनः न्यायिक कार्य सौंप दिया। उसने चार प्रांतीय तथा भ्रमणशील अदालतों को समाप्त कर दिया। अब इन अदालतों के न्यायिक कार्य कलेक्टर तथा मजिस्ट्रेट को सौंप दिये गए।
  • इलाहाबाद में सदर दीवानी तथा सदर निजामत अदालत की स्थापना दिल्ली तथा आधुनिक उत्तर प्रदेश के लोगों की सुविधा को ध्यान में रखकर की गई।
  • भारतीय विधि को संहिताबद्ध करने के उद्देश्य से विलियम बैंटिक के शासनकाल में 1833 ई. में लार्ड मैकाले की अध्यक्षता में विधि आयोग का गठन किया गया।
  • इस आयोग द्वारा कानून को संहिताबद्ध करने का महत्त्वपूर्ण कार्य किया गया। मैकाले ने दंड संहिता में सुधार करते हुए उसे अधिक सरल तथा उपयोगी बनाया। छोटी अदालतों में स्थानीय भाषा के प्रयोग की अनुमति मिल गई, जबकि बड़ी अदालतों में अंग्रेजी भाषा में ही काम-काज किया जाता था।

क्राउन के अधीन न्यायिक विकास (Judicial Development under Crown)

  • 1853 ई. के चार्टर अधिनियम के तहत द्वितीय विधि आयोग का गठन किया गया, जिसकी सिफारिशों के आधार पर सन् 1859-61 के मध्य दीवानी संहिता (1859), भारतीय दंड संहिता (1860) व फौजदारी नियम संहिता (1861) का निर्माण किया गया।
  • 1935 ई. के भारत शासन अधिनियम में सम्पूर्ण भारत (ब्रिटिश भारत एवं देशी रियासतों) के लिये एक संघीय न्यायालय की व्यवस्था की गई। इस न्यायालय को आधुनिक भारत के सर्वोच्च न्यायालय के समान व्यापक शक्तियाँ दी गई, जिसमें दीवानी फौजदारी मामलों की अपील, केंद्र-राज्यों के मध्य उठने वाले विवादों की प्रारम्भिक सुनवाई तथा परामर्शदात्री अधिकार सम्मिलित थे।
  • हालाँकि, इस न्यायालय को सर्वोच्च न्यायालय की संज्ञा नहीं दी जा सकती, क्योंकि इसके विरुद्ध कतिपय मामलों में अपील ब्रिटेन की प्रिवी काउंसिल में की जा सकती थी।

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