इस Notes का अध्ययन करने के उपरांत ‘ ब्रिटिशकालीन विदेश नीति (Foreign Policy of British Period) तथा उससे सम्बंधित विभिन्न पहलुओं’ पर आपकी समझ विकसित होगी। जैसे – पृष्ठभूमि, ब्रिटिशकालीन विदेश नीति,ब्रिटिशकालीन विदेश नीति के लक्षण,ब्रिटिश भारत का सीमावर्ती देशों के साथ सम्बंध एवं और भी कई सारे प्रमुख विंदु ।
पृष्ठभूमि (Background)
- ब्रिटिश कम्पनी के शासनकाल के दौरान भारत की सीमा पर नेपाल, तिब्बत, बर्मा और अफगानिस्तान अपना अस्तित्व बनाए रखने में सफल रहे थे।
- अपनी आक्रामक साम्राज्यवादी नीति के तहत अंग्रेजी कम्पनी ने 1818 ई. तक पंजाब और सिंध के अलावा लगभग पूरे भारत को जीत लिया था।
- दरअसल भारत में साम्राज्य स्थापना के बाद कम्पनी ने दोहरी नीति को अपनाया, जिसके अंतर्गत एक ओर उचित एवं मजबूत प्रशासनिक व्यवस्था स्थापित करना था तो दूसरी ओर जीते गए प्रदेशों की सीमाओं को सुरक्षित रखना।
- ब्रिटिश शासन के अधीन भारत की विदेश नीति ब्रिटिश संप्रभुता एवं साम्राज्य विस्तार के सिद्धांत पर आधारित थी। इसलिए भारत की तत्कालीन विदेश नीति को प्रायः साम्राज्यवादी नीति भी कहा जाता था। इस नीति में ब्रिटिश साम्राज्य के हितों को प्रमुखता दी जाती थी।
- इस प्रकार तत्कालीन ब्रिटिश भारत के राजनीतिक एवं प्रशासनिक व्यवस्था को सुदृढ़ बनाने के लिए ब्रिटिश हितों को ध्यान में रखकर स्वतंत्र विदेश नीति का निर्माण किया गया।
ब्रिटिशकालीन विदेश नीति के लक्षण (Characteristics of Foreign Policy of British Period)
- ब्रिटिश साम्राज्य की विदेश नीति के निर्धारण में भारत की महत्त्वपूर्ण भूमिका थी क्योंकि भारत एक लाभदायक एवं महत्त्वपूर्ण उपनिवेश था। ब्रिटिश वाणिज्यिक एवं आर्थिक हितों के विस्तार को ध्यान में रखकर विदेश नीति निर्धारित की
- भारत एवं इंग्लैण्ड के बीच अत्यधिक दूरी होने के कारण ब्रिटिश सरकार को भारत की विदेश नीति के निर्धारण में अपने विवेक से कार्य करने तथा कुछ सीमा तक स्वतंत्र निर्णय लेने का अधि कार था। इस प्रकार कहा जा सकता है कि ब्रिटिश शासन ने स्वतंत्र विदेश नीति को अपनाया।
ब्रिटिश भारत का सीमावर्ती देशों के साथ सम्बंध (Relationship of British India with Neighbouring Countries)
आंग्ल-नेपाल सम्बंध (Anglo-Nepal Relation)
- अंग्रेजी कम्पनी द्वारा नियुक्त बंगाल के नवाब मीर कासिम द्वारा 1762 ई. में नेपाल पर पहला अभियान किया गया परंतु उसे पराजित होना पड़ा। इस प्रकार अंग्रेज नेपाल के सम्पर्क में बंगाल के नवाब मीर कासिम के समय ही आ गए थे।
- इसी दौरान एक व्यापारिक अंग्रेज रेजीडेंट ने भी नेपाल पर आक्रमण किया, परंतु उसे भी असफलता ही मिली।
- लॉर्ड हेस्टिंग्स (Lord Hastings) के आगमन तक नेपाल एक शक्तिशाली राज्य बन चुका था। नेपाल के उत्तर में चीन का विशाल साम्राज्य था जिस ओर अंग्रेजी सरकार विस्तार नहीं कर सकती थी अतः इसने अपने साम्राज्य का विस्तार दक्षिण में बंगाल एवं अवध की ओर शुरू कर दिया।
- अंग्रेजों द्वारा 1801 ई. में गोरखपुर जिले पर अपना शासन स्थापित किया गया, जिससे अंग्रेजी राज्य की सीमाएँ नेपाल से मिलने लगी।
- अंततः हिमालय के तराई में नेपाल और ब्रिटिश राज्य की सीमाओं को लेकर मतभेद उत्पन्न हुए।
- आगे चलकर 1814 ई. में उस समय विवाद शुरू हो गया जब नेपालियों द्वारा बस्ती जिले के कुछ क्षेत्रों (शिवराज व बुटवल) पर कब्जा कर लिया गया, परंतु शीघ्र ही ब्रिटिश शासन ने उन क्षेत्रों पर पुनः अधिकार कर लिया। इस प्रकार आंग्ल-नेपाल युद्ध शुरू हो गया।
सुगौली की संधि (Treaty of Sagauli)
- 1814 ई. में आंग्ल-नेपाल युद्ध के आरम्भ हो जाने पर हेस्टिंग्स ने तीन ओर से नेपाल को घेरने की नीति बनाई। नेपाली सैनिक (गोरखा) अंग्रेजों के समक्ष ज्यादा देर तक नहीं टिक सके और उन्हें 1816 ई. में सुगौली की संधि करनी पड़ी।
- सुगौली की संधि से अंग्रेजी सरकार को अत्यधिक लाभ हुआ। इस संधि की प्रमुख शर्तें निम्न हैं-
- ▶ नेपाल को स्वतंत्र राज्य का दर्जा प्रदान किया गया।
- ▶ अंग्रेजी राज्य (ब्रिटिश भारत) और नेपाल की सीमा निश्चित की गई।
- ▶ नेपाल सिक्किम पर अपना दावा छोड़ दिया।
- ▶ अंग्रेजों को गढ़वाल और कुमायूँ का विस्तृत क्षेत्र प्राप्त हुआ।
- ▶ नेपाल की राजधानी काठमाण्डू में एक ब्रिटिश रेजीमेंट को रखे जाने का प्रस्ताव नेपाल द्वारा स्वीकार कर लिया गया।
- ▶ इस प्रकार संधि के पश्चात् नेपाल ने एक विश्वस्त सहयागी के रूप में अंग्रेजों का साथ दिया। नेपाल से बहुत बड़ी संख्या में गोरखा सैनिक अंग्रेजी शासन में सेवा प्रदान करने लगे।
संधि का महत्त्व (Treaty of Importance)
- उत्तर में प्राकृतिक सीमा प्राप्त हुई, साथ ही नेपाल सदा के लिए ब्रिटिशों का सहयोगी बन गया।
- बहादुर गोरखा सैनिकों की सेवाएँ प्राप्त हुई।
- शिमला, मसूरी, अल्मोड़ा रानीखेत, नैनीताल जैसे पर्वतीय क्षेत्र अंग्रेज़ों को प्राप्त हुए।
- नेपाल सुरक्षा के दृष्टिकोण से ब्रिटिश साम्राज्य और तिब्बत व चीन के मध्य बफर राज्य की भूमिका निभाता रहा।
आंग्ल-बर्मा सम्बंध (Anglo-Burma Relations)
- 18वीं सदी के उत्तरार्द्ध में जब बर्मा के राजा ने साम्राज्य विस्तार की नीति को अपनाया तब अंग्रेजों एवं बर्मा के मध्य संघर्ष आश्यम्भावी हो गया। यद्यपि इससे पूर्व अंग्रेजों को बर्मा से किसी प्रकार का भय नहीं था।
प्रथम आंग्ल-बर्मा युद्ध (First Anglo-Burma War) 1824-26 ई.
- बर्मा के राजा ने जब बेनासरिम, अराकान और मणिपुर के क्षेत्रों को जीत लिया तो उसके राज्य की सीमाएँ ब्रिटिश भारत की सीमाओं से मिल गईं।
- इसी दौरान बर्मा के राजा द्वारा अंग्रेजी सरकार से उन व्यक्तियों को सौंपने की मांग की गई जो भागकर अंग्रेजों की शरण में चले गए थे, परंतु अंग्रेजों के द्वारा स्पष्ट मना करने पर दोनों के मध्य अत्यधिक रोष उत्पन्न हुआ।
- अंतत: जब बर्मा के राजा ने चटगाँव स्थित शाहीपुर द्वीप पर अधिकार प्राप्त किया तो युद्ध प्रारम्भ हो गया। इस युद्ध में बर्मा की हार हुई।
- 1826 ई. में यांडबू की संधि द्वारा दोनों के मध्य समझौता हुआ तथा युद्ध की समाप्ति हुई।
द्वितीय आंग्ल-बर्मा युद्ध (Second Anglo-Burma War) 1852-53
- शीघ्र ही यांडबू की संधि विफल हो गई। इसका मुख्य कारण बर्मा में बसने वाले अंग्रेज व्यापारियों द्वारा बर्मी कानूनों का उल्लंघन किया जाना था। साथ ही, बर्मा के नए राजा थारावादी ने यह कहकर यांडबू की संधि को मनाने से इनकार कर दिया कि, ‘यह संधि मेरे भाई से की गई थी, मुझसे नहीं। यदि अंग्रेज व्यापारियों ने कानून तोड़ा तो बर्मी सरकार द्वारा उन्हें दण्डित किया जाएगा।
- राजा धारावादी की घोषणा से लॉर्ड डलहौजी (वायसरॉय) ने तुरंत कार्यवाही करते हुए कमोडोर लैम्बर्ट के नेतृत्व में तीन युद्धपोत रंगून भेजे और बर्मी सरकार से क्षतिपूर्ति की मांग की।
- बर्मी सरकार द्वारा मांगी गई क्षतिपूर्ति न दिए जाने के कारण युद्ध आरम्भ हो गया जिसमें बर्मा की एक पुनः हार हुई।
- अंग्रेजी सेना ने 1852 तक संपूर्ण निचले बर्मा पर अधिकार कर लिया। डलहौजी ने ऊपरी बर्मा पर अधिकार नहीं किया क्योंकि इस क्षेत्र को हस्तांतरित करने से उसे विशेष लाभ नहीं दिखाई दे रहे थे।
- अंततः डलहौजी ने घोषणा द्वारा पेगू अर्थात् संपूर्ण निचले बर्मा को अंग्रेजी साम्राज्य में शामिल कर लिया।
तृतीय आंग्ल-बर्मा युद्ध (Third Anglo-Burma War) 1885-86
- इस युद्ध की पृष्ठभूमि की निर्माण बर्मी सरकार द्वारा अन्य राष्ट्रों जैसे फ्रांस एवं इटली के साथ संधि के कारण हुआ। तृतीय आंग्ल-बर्मा का युद्ध का आरम्भ बंबई-बर्मा व्यापारिक कॉर्पोरेशन के झगड़े के कारण हुआ।
- सैन्य अभियान के द्वारा मात्र दो महीने के अंदर ही अंग्रेजों ने बर्मा को जीत लिया।
- 1886 ई. में एक घोषणा द्वारा संपूर्ण बर्मा को अंग्रेजी साम्राज्य में शामिल कर लिया गया।
- अंततः 1935 ई. में भारत से बर्मा को पृथक कर दिया गया।
आंग्ल-अफगान सम्बंध (Anglo-Afghan Relation)
- ब्रिटिश दृष्टिकोण के अनुसार अफगानिस्तान की भौगोलिक स्थिति बहुत ही महत्त्वपूर्ण थी। रूस की ओर से संभावित सामरिक चुनौती का सामना करने तथा मध्य एशिया में ब्रिटेन के व्यापारिक हितों के संवहन हेतु अफगानिस्तान की प्रतिस्थति अत्यधिक महत्त्वपूर्ण थी।
- अंग्रेजी सरकार अफगानिस्तान में रूप के प्रभाव को समाप्त करना तो चाहते थे परंतु साथ ही, अफगानिस्तान को मजबूत स्थिति में भी नहीं देखना चाहते थे। वे उसे एक कमजोर तथा विभाजित स्वरूप में रखना चाहते थे ताकि आसानी से उसपर नियंत्रण कर सकें।
- लॉर्ड ऑकलैण्ड (1836-1842 ई.) के शासनकाल के दौरान ब्रिटेन और रूप से संबंध अच्छे नहीं थे। अंग्रेजी सरकार को था कि कहीं रूस भारत पर हमला न कर दे।
- जहाँ एक ओर अंग्रेजों ने तुर्की ओर से रूस की प्रगति को अवरूद्ध करने का प्रयास किया था, वहीं दूसरी ओर, रूस भी फ्रांस और अफगानिस्तान की ओर अपना वर्चस्व स्थापित करने का प्रयास करने लगा।
- रूस के बढ़ते हुए प्रभाव को रोकने के लिए लॉर्ड ऑकलैण्ड ने अफगानिस्तान के शासक दोस्त मोहम्मद (रूस का समर्थक) के प्रतिनिधित्व शाहशुजा को अफगानिस्तान का शासक बनाने का फैसला कर लिया।
- इसके लिए अंग्रेजों ने रणजीत सिंह, शाहसुजा के साथ मिलकर जून, 1838 ई. में एक त्रिदलीय संधि की। इसके कुछ समय पश्चात् हो लॉर्ड ऑकलैण्ड ने अफगानिस्तान के खिलाफ युद्ध का ऐलान कर दिया।
प्रथम आंग्ल-अफगान युद्ध (First Anglo-Afghan War)1838-42 ई.
- यह युद्ध लगभग चार वर्षों तक चला। अपनी सैन्य शक्ति के बल पर अंग्रेजों ने शाहशुजा को अफगानिस्तान का शासक बना दिया।
- अंग्रेजों का यह प्रयोग असफल हो गया क्योंकि शाहशुजा जनता में लोकप्रिय नहीं था, अतएव दोस्त मोहम्मद के पुत्र अकबर खाँ के नेतृत्व में बगावत हो गई, और इसमें शाहशुजा मारा गया। इस प्रकार अंग्रेज अपने उद्देश्य को हासिल नहीं कर सके।
द्वितीय आंग्ल-अफगान युद्ध (Second Anglo-Afghan War) 1878-80
- इस युद्ध की शुरूआत लार्ड लिटन (1876-1880 ई.) के शासनकाल में हुई।
- दरअसल, लार्ड लिटन अपने पूर्वगामी वायसरायों की ‘कुशल अर्कमण्यता’ की नीति का त्याग करते हुए ‘अग्रसर नीति’ (forward policy) को अपनाया।
- लिटन द्वारा कार्यभार संभालते ही अफगानिस्तान के अमीर शेर अली से काबुल में एक अंग्रेज रेजीमेंट रखने को कहा गया।
- परंतु शेरअली ने अंग्रेजों के इस प्रस्ताव को ठुकरा रूस से संधि करके रूसी रेजीमेंट रखना स्वीकार कर लिया।
- इसके फलस्वरूप कुछ समय पश्चात् ही दोनों पक्षों में युद्ध छिड़ गया। शेर अली हार कर भाग गया। अंग्रेजों ने उसके पुत्र ‘याकूब खाँ’ के साथ ‘गंडमक की संधि’ स्थापित कर लिया।
- गंडमक संधि जल्द ही विफल साबित हो गई। संधि के कुछ समय पश्चात् ही (सितंबर, 1879) को काबुल में ब्रिटिश रेजीमेंट की हत्या कर दी गई।
- अफगानिस्तान में फिर से युद्ध शरू हो गया। अंग्रेजी सेना ने काबुल तथा गांधार को फिर से जीत लिया। पदच्यूत याकूब खाँ को गिरफ्तार करके देहरादुन भेज दिया गया।
- लॉर्ड रिपन के वॉयसराय बनने पर शेर अली के भतीजे अब्दुरहमान को अफगानिस्तान का अमीर स्वीकार कर लिया गया।
तृतीय आंग्ल-अफगान युद्ध (Third Anglo-Afghan War) 1919 ई.
- यह युद्ध लगभग दो महीने अप्रैल-मई, 1919 ई. अल्पावधि में लड़ा गया।
- अब्दुरहमान के पुत्र हबीबुल्ला की निर्मम हत्या अफगानी कट्टरपंथियों द्वारा कर दी गई क्योंकि वह अंग्रेजों का मित्र था तथा अफगानिस्तान को संगठित करने का इच्छुक था। •
- हबीबुल्ला के बाद उसका पुत्र अमानतुल्ला शासक बना परंतु वह अंग्रेजों का कट्टर विरोधी था। वह अफगानिस्तान को अंग्रेजी प्रभाव से मुक्त करना चाहता था, जिसके कारण दोनों पक्षों में युद्ध हुआ।
- अमानतुल्ला जल्द ही हार गया तथा पराजित अफगानी अमीर ने अंग्रेजों से संधि कर ली।
- अंग्रेजों एवं अफगानों के मध्य हुई यह संधि ‘रावलपिण्डी’ की संधि के नाम से जानी जाती है।
- इसके तहत अफगानिस्तान के अमीर को भारत से दी जाने वाली आर्थिक सहायता बंद कर दी गई। ब्रिटिश भारत और अफगानिस्तान दोनों ने एक दूसरे की स्वतंत्रता का सम्मान करने का निश्चय किया।
- अंतत: रावलपिण्डी की संधि के पश्चात् आंग्ल-अफगान सम्बंध प्रायः मैत्रीपूर्ण ही रहा।
आंग्ल-तिब्बत सम्बंध (Anglo-Tibet Relations)
- ब्रिटिश भारत का तिब्बत के साथ सम्बंधों की शुरूआत गवर्नर जनरल वॉरेन हेस्टिग्स के समय से हुई। वॉरेन हेस्टिंग्स ने व्यापारिक सुविधाएँ प्राप्त करने के लिए 1774-75 ई. में जॉर्ज वोल्गले के नेतृत्व में एक शिष्टमण्डल तिब्बत भेजा परंतु कोई विशेष सफलता नहीं मिली।
- वॉरेन हेस्टिंग्स के बाद लंबे समय तक अंग्रेजों एवं तिब्बत के बीच के कोई सम्बंध नहीं रहा।
- कालांतर में लॉर्ड कर्जन ने तिब्बत की ओर विशेष रूचि दिखाई।
- सन् 1901 ई. में कर्जन को पता चला कि तिब्बत में रूप और चीन के मध्य एक संधि हुई है, जिसके अनुसार तिब्बत पर रूस अधिकार करने को अग्रसर है।
- अतः सन् 1904 में कर्जन ने कर्नल यंगहस्बैण्ड की अध्यक्षता में एक शिष्टमंडल तिब्बत भेजाा एवं तिब्बती शासन ने अंग्रेजों के साथ ल्हासा की संधि की।
- इससे अंग्रेजों को तिब्बत ने यह आश्वासन दिया कि वह किसी भी विदेशी शक्ति को अपने यहां हस्तक्षेप करने का अवसर नहीं देगा।
- इस प्रकार लार्ड कर्जन की त्वरित एवं सक्रिय हस्तक्षेप से तिब्बत में रूस के प्रभाव को नष्ट कर दिया गया।
ब्रिटिशकालीन विदेश नीति से सम्बंधित महत्त्वपूर्ण संधियाँ: एक नजर में
संधि का नाम | संधिकर्ता | प्रमुख तथ्य |
---|---|---|
सुगौली की संधि (1816 ई.) | अंग्रेज एवं नेपाल | नेपाली ब्रिटिश रेजीमेंट रखने के लिए सहमत हो गए। |
यांडबू की संधि (1826 ई.) | अंग्रेज एवं बर्मा | यह संधि प्रथम आंग्ल-बर्मा युद्ध के दौरान हुई |
गंडमक की संधि (1879 ई.) | अंग्रेज एवं अफगानिस्तान | यह संधि द्वितीय आंग्ल-अफगान के दौरान अंग्रेजों एवं याकूब खाँ के साथ हुई। |
रावलपिण्डी की संधि (1919 ई.) | अंग्रेज एवं अफगानिस्तान | यह संधि तृतीय आंग्ल-अफगान के दौरान हुई। इससे ब्रिटिश भारत एवं अफगानिस्तान के संबंधों में शांति स्थापित हुई। |
ल्हासा की संधि (1904 ई.) (यंग हस्बैण्ड मिशन) | अंग्रेज एवं तिब्बत | यह संधि कर्जन की सफलता को प्रदर्शित करती है। इससे तिब्बत में रूस के प्रभाव को रोकने में कामयाबी हासिल हुई। |
ब्रिटिशकालीन विदेश नीति Notes PDF
नीचे ब्रिटिशकालीन विदेश नीति का नोट्स पीडीएफ़ दिया गया है। इस नोट्स का अध्ययन करने के उपरांत “ब्रिटिशकालीन विदेश नीति,ब्रिटिशकालीन विदेश नीति के लक्षण एवं ब्रिटिश भारत का सीमावर्ती देशों के साथ सम्बंध” से सम्बंधित विभिन्न पहलुओं’ पर आपकी समझ विकसित होगी।